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कविता

संशय में जी रहा

मत्स्येंद्र शुक्ल


चमकते उथले जल में

तैर रहीं वक्र गति नन्‍हीं नवजात मछलियाँ

कुआर मास वर्षा के अंतिम दिन

कुंडी के थिर स्‍वच्‍छ जल में

चाँदी की सीपी-सी झलक रहीं

तैर-तैर फिसल रहीं

मगन मन मछलियाँ

शिकारी नहीं कहीं जाल नहीं

निर्भय तरंग-संग विचरण कर रही मछलियाँ

पनुहाँ साँप कहीं से लुक-छिप आया

मच गई खलबली

इधर

कुछ उधर

जाने किस अतरे-कोने में दुपक गईं मछलियाँ

आतंक हत्‍या क्रूरता के भयावह गुरिंदे में

आश्‍चर्य! संशय में जी रहा पृथ्‍वी पर मनुष्‍य


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हिंदी समय में मत्स्येंद्र शुक्ल की रचनाएँ